भावनावो में बहना हम हिन्दुस्तानियो के खून में है , हमारी भावनाए ही तो बहती है गंगा में, यमुना में,.गोदावरी में, या छठ के उस छोटे से तालाब में या एक छोटे से कठौती (बर्तन) में । अगर भावना में हम हिंदुस्तानी नहीं बहते तो मन चंगा होने के बाद भी कठौती में गंगा का बहना असम्भव होता ।
ईद हो, दीपावली हो , बैसाखी हो या क्रिश्मस डे हो, भावनायें ही तो है जो लोगो को आपस में जोड़ती है ।
अयोध्या का राम मंदिर , बाबरी मस्जिद ,अमृतसर का अकाली तख़्त इनमे भी भावनायें ही तो है जो लोगो को जोड़ती नहीं है तोड़ती है , ये भावनाए , भ्रमित भावनाए है (इसको मरीचिका भी कह सकते है ) ।
पर अभी तक ये निस्कर्ष नहीं निकला है कि ''धर्म '' बड़ा या ''भावना'' ये मैं आपकी सोच पे छोड़ देता हुँ ।
ये वोट बैंक भी तो भावना ही है जिसके दम पर बड़े बड़े राजनितिक पार्टियों कि कुर्सिया टिकी हुवी है ।
वो भावनायें ही तो थी जो 1936 में बॉम्बे बंदरगाह पर उस देश के लाल ध्यानचंद को देखने के लिए 3000 से अधिक लोग बेताब थे, जिसने नंगे पाव उसी के जमीन पर जर्मनी को हरा के , हिटलर के प्रस्ताव को ठुकरा के हिंदुस्तान कि सरजमीं पर दुबारा कदम रखने वाला था। उस समय न तो ये टीआरपी थी न इतनी अधिक मीडिया थी ,जो ध्यानचंद को सितारा बना देता , वापस आके जर्मनी से वे हमेसा कि तरह रोज मर्रा कि जीवन से जुड़ गए।
(आगे.. अभी बाकि है )
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